8 thoughts on “ये शहर….

  • November 5, 2009 at 5:29 AM
    Permalink

    दिन निकलता है ज़िन्दगी की उम्मीद बन …बहुत खूब कहा …!!

    जब रहना यही है तो इस चकाचौंध की भी आदत लगा लो मित्र !!

    I like the truth n depth of your thoughts in your writeups..

    bhavpoorn kavita !!

    Reply
  • November 5, 2009 at 5:56 AM
    Permalink

    दिन निकलता है ज़िन्दगी की उम्मीद बन .अच्छी लाईन.

    Reply
  • November 9, 2009 at 5:39 AM
    Permalink

    अच्छी कविता है रजत जी लेकिन स्पेलिंग की गलतियाँ ठीक कर लें ।

    Reply
  • November 13, 2009 at 4:21 AM
    Permalink

    hun sab kitane bebas aur lachaar bante ja rahe hai is paise ke chakkar me. badhiya rachana, abhinandan

    Reply
  • December 6, 2009 at 8:49 AM
    Permalink

    सडकें चौड़ी है, इमारतें भी ऊँची है,
    चाहत से पहले हर वस्तु पहुंची है,
    भैये यही महानगर है, सबके सपनो का शहर है
    लोग अपना गाँव छोड़ रहे है, घर से भी रुक्सत हो रहे है,
    भैये सीधी सी बात है, मुश्किलों से फुर्सत ले रहे है
    अब हमें नहीं चाहिए प्यार, रोटी भी दो की जगह चार,
    और साथ खाने को है माँ-बाप के अरमानो का अचार,
    भैये यही है महा नगर का बाज़ार
    हाथों में मोबाइल लेकर, अमरीका तक बतियाते है
    पड़ोस में रहता है कौन, सारी उम्र न जान पाते है
    प्रेमिका की ख्वाहिस करने को पूरी peronal loan लेते है
    बहन की फटी हुई सारी gogles लगा के देखते है
    राजधानी ट्रेन की AC अब भने लगी है,
    Kingfisher की उड़ान लुभाने लगी है
    कहने को तो मैं कहता ही जाऊंगा
    लिखने बैठ गया तो ग्रन्थ लिख जाऊंगा
    पर लाख टके की बात मुफ्त में बतलाता हूँ
    महानगर को कोसना बंद करो
    हमारा इक्छा हमें बहकता है
    अपने दिल को ज़रा सा साफ़ करो, अब मुझे माफ़ करो
    चाहोगे तो पूरा महानगर अपना परिवार लगेगा
    वरना भैये अपना परिवार भी महानगर लगेगा
    बुरा कोई जगह या बुरी कोई चीजे नहीं होती
    बुरे होते है हम, हमारी सोंच बुरी होती है
    वो किसी ने खूब ही तो कहा है
    हमसे है जमना, हम ज़माने से नहीं…

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *